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धरती का एक टुकड़ा

धरती का एक टुकड़ा हूं,
में आज तुझे पुकारता हूं,
क्या खोने तू आया है, यह सोचता हूं विचरता हूं।

बहती थी नदियां, ठहर गईं।
पर्वत भी आँसू रोएं हैं।
मोती की चमकों के आगे, सागर ने जंतु खोए हैं।

पर जानता हो तेरे यश को,
तू कागज़ के फूल बना लेगा,
सूरज भी कल जो सुख गया, तू अपना प्रकाश बढ़ा लेगा।

पर पूछता हूं सवाल बस यह,
इन हीरों से, इन मोती से,
इन रंगों से, इन चम्कों से,
सुगंध हीन इन फूलों से,
क्या प्रेम गीत सजा लोगे?
कृत्रम प्रकाश की किरणों से, क्या मन का दीप जला लोगे?

नित अंधकार से घिरा हुआ,
अपनी सीरत पहचान भी ले,
क्या खोने तू आया है अपनी किस्मत को जान भी ले!

पवन भी बहना भूल गया, अब धुएं के बदल छाए हैं।
मनुष्य विचारना छोड़ चले, दिन हीरों के अब आएं हैं

तारों की छांव के बदले, हत्यारों का प्रकाश सजा लेगा,
इस धरती को नष्ट कर तो शायद, अपनी लघुता स्वीकार लेगा।

किन अंधेरों से घिरा हुआ, अपनी गलती पहचान भी ले।
मौका आखरी देती हूं, अपनी त्रुटियों सुधार भी ले।


सिद्धांत गोयल