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हीरा

बनकर दौलत की निशानी,
हीरे कहते वर्षों की कहानी।

मगर एक गाथा किसी ने ना जानी,
धूल की कीमत ना मानी।

सूरज से भी कुछ ज़्यादा,
कुछ चमक ऐसी वो देखी,
जल गया कब जानता ना, जल रहा था नागासाकि।

जो मुझे अनंत मानते उनकी ईमारत गिर गई थीं।
मुझमें गौरव देखते जो उनकी स्मारक गिर गई थीं।

भूमि हिलकर चीखती थी मनुष्य की इस नादानी पे।
बाकि जग अंजान क्यों था अपनी इस कारिस्तानी से?

अपनी गाथा जग को कहता, पर धूल भी कब बोलती है,
कामयाबी धन से अपने सिर्फ़ हीरे तोलती है।

ये तो शुक्र है आँख न थीं, दृश्य मौत का न देख सका था।
मनुष्य को क्या देखता मैं, वो खुद अंधा हो चुका था।


सिद्धांत गोयल