मन आशा, मंज़िल अभिलाषा,
दृण कदम लिए चलता जाता...
एक पंथ का पंथी था,
मंज़िल की ओर बढ़ा जाता...
आराम धरा, अभिमान धरा,
सब छोड़ मंज़िल की ओर चला!
इस मंज़िल के पथ में मिलते,
पर नक्शों के व्यापारी थे,
देवदूत के भेष में यह, विचित्र तर्क अधिकारी थे।
ज्ञान धरा, संज्ञान धरा,
तर्क धरा, प्रयास करा!
नित कदमों का अभ्यास करा!!
मंज़िल को नित आभास करा।
पर शिखर की आशा मन में ले,
गगन को कब हम भूल चले?
किस ओर चले ये बिन पूछे,
हाथ पकड़ यह भीड़ चले!
माना मंज़िल मुश्किल भी है,
माना अनजान यह पथ भी है...
पर मंज़िल तो खुदमें ही, है पथ अपना भी खोज रही।
खुद मंज़िल से भी पूछो वो है कितना खुद में जूझ रही।
जो खुदको खुद न जान सका...
उसका रस्ता तुम पहचान चुके?
पंथी आशा बस इतनी है,
कदमों से पथ रच जाओगे...
पाओगे मंज़िल, पर थमोगे नहीं,
आँखों में हैरानी ले बढ़ते जाओगे।