रूह अम्बर में, पग में धरती,
ह्रदय विशाल, लघु आशा है!
इस चिड़िया की रुक चाल सुनो!
क्रांति सुगंध, अभिलाषा है....
आशा है अम्बर को छूले,
पर पग रह जायें धरती पर
जो ज्ञान है इसके कदमों में,
चीखों में वो संज्ञान कहाँ?
स्वरचित पंथ अनुयायी है,
ज़ंजीरों का संज्ञान कहाँ!
कभी विकराल रूप,
ममता स्वरुप,
इस अंधकार में, सूक्षम धुप,
हाँ बादल से है घिरी हुई,
उन बादल का संज्ञान भी है,
शायद कुछ से अनजान भी है...
पर गगन खूब पहचानती है,
उसकी कीमत भी जानती है..
समाज खड़ा है सीमा बन,
कुछ नापाक कदम,
कुछ अभद्र मनन,
सबसे तत्वों से यह वाकिफ है।
आशा है, इन तत्वों को उखाड़,
मानव की भाषा को सुधार,
विचार दक्यानुसी पिछाड़,
मानव को मानुष में उभार,
गगन जीत कर आएगी...
पर आशा है, पहचानेंगे हम,
वह ममता, कोमलता से बढ़कर,
एक अद्वित्य स्वरुप भी है।
नारी से आगे बढ़कर वो,
एक मनुष्य भिन्न अनूप भी है।