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ताज महल

यमुना की गोद में मोती सा चमकता एक मकबरा।
मोहब्बत का इश्तिहार?
या एक स्मारक शोहरत से भरा?

जूझता इन्हीं सवालों से,
खड़ा था मैं उसे पार,
उतरती थी मेरी तस्वीर ..
क्या मैं खुद भी था इश्तिहार?

तब ही संगमरमर ने तोड़ी चुप्पी की सलाख,
विद्वता ले 300 वर्षों की,
बोला विनम्र स्वभाव..
ये नक्काशी, ये खूबसूरती,
यह छलावा, यह नकाब,
हमेशा समझे गए हैं मोहब्बत के शबाब...

पर देखनी हो मोहब्बत की असली तासीर,
तो उन फ़नकारूँ के जज़बे को देखो,
जिन्होंने बक्शी इसको यह नायाब तस्वीर..

या देखो उनकी दूरदर्शिता,
जिनके कारण 300 वर्षों से खड़ी है यह इमारत,
बनके प्रेम, मोहब्बत और शोहरत की स्मारक।

या जानो शौहरत की फितरत,
जो चंद पलों में गुज़र जाती है,
अपनी निशानी की तरह,
कुछ स्मारक मात्र छोड़ जाती है।

या सुनो कुदरत की वो पुकार,
जो पीलेपन से इस इमारत को निखार,
मांगती हमसे एक सच्चा प्रयास।

दिखाकर देखो तो इस मकबरे को आइने,
इसमें छुपे है, लाखों.. लाखों.. मायेने।


सिद्धांत गोयल