भाव-विचार प्रसार की जननी, भाषा का आभारी हूं,
तेरे कारण ही तो मैं, अपने बोलो का अधिकारी हूं।
पर आभार करूं मैं किस किस का।
यह जीवन भी तो उपहार ही है,
लाखों का उपकार ही है।
पर भाषा तेरे ही बोलों से,
दिल कितनों के हैं टूट चुके,
ये जलते घर, जलती गलियां, जलती लाशें,
मुझसे भी कुछ मांगती हैं…
उत्तर को चीख पुकारती हैं।
मेरे भी कुछ बोलो से तो,
हृदय आघात हुआ होगा।
जो टूट गया उस दिल को मैं, शब्दों से कैसे जोड़ सकूं?
बस माफी ही दिल से मांग सकूं,
गलती अपनी स्वीकार सकूं,
इस डोर पड़ी हैं गाठें जो,
स्प्रेम मैं उनको तार सकूं।
इतिहास देख पहचानता हूं,
शायद यह भूल पुनेः भी हो।
कृपा होगी माफी उस क्षण की,
जो आज ही तुम स्वीकार करो।
बेहतर बनने की मेरी आशा,
पहचान सको, साकार सको।